Saturday 14 July 2012

भारत की विघटनकारी बाहरी शक्तियां. (ब्रेकिंग इंडिया - लेखक राजीव मल्होत्रा)

देश का आतंरिक मापदंड अवश्य यह होना चाहिए की हम अपने सबसे असमर्थ नागरिकों के लिए क्या कर रहे हैं, और इस विषय में अवश्य हमें कटु आलोचना करनी चाहिए. किन्तु साथ ही यदि हम एक राष्ट्र के रूप में बाहरी शक्तियों का सामना नहीं कर सके तो क्या परिणाम होंगे? - आक्रमण, उपनिवेशीकरण, और एक सांस्कृतिक-मानसिक साम्राज्यवाद.  ऐसा भारत के इतिहास में अनेक बार हुआ है. उदहारणस्वरुप,अंग्रेजों ने कई भारतीय राज्यों पर कब्ज़ा करने के लिए मानवाधिकारों का बहाना बनाया.  जबकि खुद अंग्रेजों ने वहीँ कितने अत्याचार किये, लेकिन उन्हें सही ठहराने के लिए और भारतीयों को क्रूर और बर्बर दिखलाने के लिए "बर्बरता के दस्तावेज" (Atrocity literature ) तैयार किये. उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि उनकी क्रूरता भारतीयों को "सभ्य" बनाने के लिया गया जरूरी कदम था. 


- 1871 में एक अपराधी जनजाति कानून (क्रिमिनल ट्राइब एक्ट ) लागू किया गया, जिसके अनुसार कई भारतीय जातियों-जनजातियों को जन्म से अपराधी घोषित कर दिया गया और उन्हें जान से मारने को जायज ठहराया गया. जबकि ज्यादातर समूह सिर्फ अपने प्राकृतिक संसाधनों को अंग्रेजों द्वारा नष्ट किये जाने का विरोध कर रहे थे. "ठग" एक ऐसी ही जाति थी जिसे अंग्रेजों ने अपने दस्तावेजों में इतना बदनाम किया कि "ठग" अपराधी का पर्याय ही बन गया. 


- ऐसे ही तरीकों से अंग्रेजों ने संपत्ति पर औरतों के अधिकार को छीन लिया. "वीणा ओल्डेनबर्ग" ने अपनी पुस्तक "दहेज़ हत्या" में वर्णन किया है कैसे भारतीयों को उकसा कर उन्हें अत्याचार कि कहानियां बना कर पेश करने को कहा जाता था, जिसे फिर हमारी लोक-संस्कृति की खराबियां बताया जाता था. ऐसी मनगढ़ंत या बढ़ा-चढ़ा कर सुनाई गई  कहानियां फिर मनमाने कानून बनाने का बहाना बनती थी. मध्यम वर्ग में आज प्रचलित दहेज़ कि मांग की शुरुआत भी उसी समय हुई जब औरतों के संपत्ति पर अधिकार को अंग्रेजों ने कानून बना कर ख़त्म कर दिया.
- निकोलस डर्क उन विद्वानों में एक हैं जिन्होंने दिखाया है कि कैसे अंग्रेजों ने अत्याचार कि ऐसी ही कहानियों का उपयोग जातियों के बीच शत्रुता फैलाने के लिए किया, और फिर उसे "सुलझाने" के बहाने से हस्तक्षेप कर के भारत की सम्पदा को लूटा.
- मजदूरों पर अत्याचार के बहाने से कई भारतीय उद्योगों को प्रतिबंधित कर दिया गया. कपड़ा और स्टील उद्योगों को, जिसमें भारत इंग्लैंड से बहुत आगे था, ख़त्म कर दिया गया और भारत को सिर्फ एक बाजार बना दिया गया. अँगरेज़ लेखक विलियम डिग्बी के अनुसार 1757 से 1812 के बीच भारत से अंग्रेजों ने 1 अरब पौंड का मुनाफा कमाया( आज के मूल्य से 10  खरब). अँगरेज़ अपने प्रतिद्वंदी भारतीय उद्योगों पर मजदूरों से दुर्व्यवहार के आरोप दर्ज करते थे, फिर उनके धंधे बंद कर देते थे, हालांकि इससे मजदूरों कि हालत और खराब ही होती थी. 

सौ वर्ष पहले गांधीजी ने अपनी पुस्तक "हिंद स्वराज" में कहा था की कैसे जो भारतीय बिना सोचे समझे अंग्रेजों के लिए काम कर रहे हैं, वे अनजाने में अपनी गुलामी की जंजीरों को मजबूत कर रहे है. सौ साल बाद हमें आज फिर आत्म-मंथन करने की जरूरत है -
-क्या आज पश्चिमी तंत्र  भारतीय सिपाहियों का ही इस्तेमाल कर के भारत पर कब्ज़ा करने में पहले से भी ज्यादा सफल नहीं है? यह भारतीय बुद्धिजीवियों को अलग-अलग स्तर पर मिला कर किस तरह भारत के विरुद्ध अलगाववादी पहचान बनाने का काम कर रहा है?
-हमारी अनेक सामाजिक संस्थाओं और सरकारों का पश्चिमी चर्चों से क्या सम्बन्ध है?
- "मानवाधिकार" नाम के व्यवसाय को किस तरह से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के विरुद्ध प्रयोग किया जा रहा है?
- बड़ी-बड़ी निजी संस्थाएं - फोर्ड फाउंडेशन, कार्नेगी फाउंडेशन, रॉकफेलर फाउंडेशन, लूस फाउंडेशन, प्यु ट्रस्ट क्या अमेरिकी शासन के हाथों कि कठपुतली हैं, और वे कैसे पूरी दुनिया पर शासन करने के अमेरिकी सपने को पूरा करने में जुटे हैं?   


हम इस पुस्तक में देखेंगे कि भारत की ये विघटनकारी शक्तियां किस तरह अंतरराष्ट्रीय ताकतों से संपर्क कर रही हैं, साथ ही आपस में भी सामंजस्य बना कर देश को तोड़ने के काम में लगी हैं. विशेषतः यह पुस्तक दिखाएगी की कैसे भारत में 200 वर्षों से मुख्यधारा से अलग "द्रविड़" और "दलित" पहचान की रचना करने का काम चल रहा है और इसके पीछे पश्चिमी तंत्र कैसे काम कर रहा है.  यहाँ प्रश्न उठता है की जब देश के अन्दर "अल्पसंख्यक" कहलाने वाले लोग एक अंतर्राष्ट्रीय बहुसंख्यक समुदाय का भाग बन कर काम कर रहे हों, तो "अल्पसंख्यक" की परिभाषा क्या होनी चाहिए?
Excerpted with permission from Malhotra, Rajiv and Aravindan Neelakandan, "Breaking India: Western Interventions in Dravidian and Dalit Faultlines," Amaryllis Publishers, Delhi, २०११


Chapter : Superpower or Balkanised War Zone?

Tuesday 10 July 2012

भारत महाशक्ति; या महाविनाश की ओर! (ब्रेकिंग इंडिया... लेखक - राजीव मल्होत्रा)


अध्याय १ . भारत : महाशक्ति; या महाविनाश की ओर

हमारी सभ्यता और संस्कृति हमें एक साझा पहचान देती है, एक साझा ऐतिहासिक विरासत और एक भविष्य देती है. हमें यह बोध देती है की हमारा देश और यह संस्कृति इस योग्य है जिसे बचाने के लिए संघर्ष किया जाये. एक सभ्यता को तोड़ना एक व्यक्ति की रीड़ की हड्डी को तोड़ने जैसा है.  एक टूटी हुई सभ्यता टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर सकती है, और एक पूरे क्षेत्र को गहरे अंधकार में धकेल सकती है.

क्या भारतीय सभ्यता में इस तरह टूटने की प्रवृति है? और वो कौन सी शक्तियाँ हैं जो इसे तोड़ने का प्रयास कर रही हैं. वे बाहरी ताकतें हैं, या अंदरूनी? या दोनों? वे कहाँ उपजती हैं, कैसे बढ़ती हैं? उन्हें कौन चलाता है?
यह पुस्तक विशेषतः द्रविड़ और दलित पहचान के सन्दर्भ में इन्ही प्रश्नों को उठाती है -  कि कैसे पश्चिमी शक्तियां इसका दुरुपयोग कर रही हैं.

भारत को जोड़कर रखने वाली केंद्रीय शक्तियां कौन सी हैं? - आर्थिक विकास, व्यापारिक और औद्योगिक विकास, और बेहतर लोकतान्त्रिक शासन....इनके बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा रहा है. पर भारत को तोड़ने की शक्ति रखने वाली आन्तरिक और बाहरी विकेन्द्रीय शक्तियों के बारे में कम चर्चा हो रही है. ये  शक्तियाँ  हैं - साम्प्रदायिकता, और सामजिक-आर्थिक असमानता.

किन्तु देश को तोड़ने वाली बाहरी शक्तियाँ ज्यादा जटिल हैं. और वे हमारी आन्तरिक दरारों से एक समीकरण बना रही हैं. एक विश्वव्यापी तंत्र है जो इन आन्तरिक शक्तियों को नियंत्रित कर रहा है. पाकिस्तान हमारे यहाँ अव्यवस्था फैलाने वाला अकेला नहीं है. चीन का माओवादियों से सम्बन्ध, या यूरोप और अमेरिका की धर्मान्तरण करने वाली ताकतें ही अलगाववाद नहीं फैला रही. यह सब तो है ही, पर इससे कहीं ज्यादा है। इन सभी विभाजनकारी शक्तियों का एक गहरा और जटिल अंतर्संबंध है. यह पुस्तक इन्ही अंतर्संबंधों से पर्दा उठाती है. पश्चिम के शिक्षा संस्थान, चर्च  और राजनीतिक शक्तियां भारत की इन विभाजनकारी शक्तियों को पाल-पोस रहे हैं। वे हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों का दुरूपयोग कर रहे हैं, और नए अंतर्विरोध पैदा कर रहे हैं.

भारत की विघटनकारी प्रवृतियाँ -
सबकुछ बाहरी ताकतों के मत्थे मढ़ देने का प्रवृति बहुत सामान्य है, किन्तु हमें आत्म मंथन की आवश्यकता है कि हमारी अपनी कमजोरियां और विघटनकारी प्रवृतियाँ क्या हैं? -
1. भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब रहते हैं. सबसे ज्यादा बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जा पाते हैं, और विभिन्न समुदायों के बीच संघर्ष हो रहा है.
2. यहाँ अनेक सामाजिक अन्याय और विषमतायें हैं, कुछ ऐतिहासिक और कुछ आधुनिक। कुछ भारतीय समाज की उपज हैं, और कुछ विदेशी ताकतों द्वारा बोई और सींची गयी हैं.
3. नयी-नयी आर्थिक तरक्की के परिणाम निचले सामाजिक तबके तक नहीं पहुँच पा रहे हैं. जहाँ लाखों भारतीय जनता के ही पैसे से तकनीकी शिक्षा पा कर अमीर बन रहे हैं, वहीँ उनसे कई गुना ज्यादा हैं जिन्हें प्राथमिक शिक्षा भी नहीं मिल रही है. हमारा मध्यम वर्ग जहाँ अमेरिकन बनने की होड़ में लगा है, वहीँ कृषि और जल-संसाधनों के क्षेत्र में निवेश शून्य है. सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति दयनीय है.
4. काश्मीर, उत्तर-पूर्व और माओवादी हिंसा से घिरे अनेक भारतीय राज्यों में अलगाववादी आन्दोलन एक बहुत बड़ा खतरा है. जब-तब इस्लामिक आतंकवादी हमले होते रहते हैं, और परिणामस्वरूप हिन्दू-मुस्लिम हिंसा भड़क उठती है. द्रविड़ और दलित विभाजन के आधार पर दक्षिण में हिंसा फ़ैल रही है, जो इस पुस्तक का विषय है.
5. साइबर स्पेस, जो भारत की शक्ति माना जाता है, भी हमारी सामरिक कमजोरी बन रहा है.  एक रिपोर्ट में भारत को साइबर जासूसी का सबसे बड़ा शिकार बताया गया है. हमारी सैन्य सूचनाएं और राजनैयिक संवाद चीनी जासूसी संस्थाओं के हाथ में आसानी से चले जाते हैं, और माओवादी आतंकियों द्वारा उनका दुरूपयोग होता है.
6. भारत के चारों और असंतुलित और अव्यवस्थित देश हैं, जिनमें से अनेक असफल राज्य हैं.  वहां से हिंसक गतिविधियाँ हमारे यहाँ आयात हो रही हैं, जिनसे निबटने में हमारे संसाधनों का बड़ा भाग लग रहा है. भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में राजनीतिक पार्टियाँ उग आई है, जिससे वोटों का विभाजन हो रहा है, और परिणामस्वरूप हमारी नीतियों में अदूरदर्शिता और अवसरवादिता झलकती है. आप सोचेंगे कि क्या भारत में जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र है? या जरूरत से कम शासन व्यवस्था?

साथ ही भारत की कुछ आन्तरिक शक्तियां हैं...

1. अमेरिका में आतंकवाद से लड़ने के लिए पूरे देश का सैन्यीकरण कर दिया गया है, पर भारत में ऐसा नहीं हुआ है. हमारे यहाँ लगातार कई हमलों के बावजूद किलेबंदी जैसा माहौल नहीं है. 
2. हमारे यहाँ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम जनसँख्या है. लेकिन विश्वव्यापी प्रवृति के विपरीत भारत के ज्यादातर मुसलमान अभी तक इस्लामी आतंकी संगठनों के चंगुल से अपने को बाहर रखे हुए हैं, और स्थानीय संस्कृति से जुड़े हुए हैं. भारतीय इस्लाम पूरी दुनिया में मुसलामानों के अन्य धर्मों से सह अस्तित्व के लिए एक आदर्श स्थापित कर सकता है.
3. भारत की उदार और लचीली संस्कृति इसकी बहुत बड़ी शक्ति है. साथ ही भारत ने आजादी के बाद कई कड़े नीतिगत निर्णय लिए हैं. उदहारण के लिए आरक्षण पिछले साठ वर्षों से अनवरत हर सरकार द्वारा लागू किया गया है, जिसने समाज के गरीब तबकों, विशेषतः दलितों की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार किया है - हालाँकि यह शायद पर्याप्त नहीं है. बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा इस शुन्य को भरने का सराहनीय प्रयास भी हुआ है.

Excerpted with permission from Malhotra, Rajiv and Aravindan Neelakandan, "Breaking India: Western Interventions in Dravidian and Dalit Faultlines," Amaryllis Publishers, Delhi, 2011
Chapter : Superpower or Balkanised War Zone?





भारत के दो चेहरे : अगर यह खाई नहीं पाटी गई तो हमारी आने वाली पीढ़ियां इसी में गिरेंगी. 






विघटनकारी बाहरी शक्तियाँ - क्रमशः अगले लेख में..



Monday 2 July 2012


ब्रेकिंग इंडिया- लेखक  राजीव मल्होत्रा. 


अगर आपने यह नहीं पढ़ा है तो आप अपने बच्चों के भविष्य के साथ अन्याय कर रहे हैं...

राजीव मल्होत्रा की यह आँखें खोलने वाली पुस्तक भारत के भविष्य की बहुत अँधेरी तस्वीर प्रस्तुत करती है ;पर दुर्भाग्य से यह एक ऐसा सच है, जिसकी अनदेखी करके हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक गृहयुद्ध और बर्बादी की और धकेलने वाले हैं    
 सौभाग्य से श्री राजीव मल्होत्रा ने वर्षों के शोध के बाद उन ताकतों के आपसी संबंधों को पहचाना है , जो भारत को तोड़ने में लगे हुए हैं .इस पुस्तक में क्या है यह मैं, राजीव जी के शब्दों का अनुवाद लिख रही हूँ ...

"यह पुस्तक पिछले एक दशक के कई अनुभवों का परिणाम है . 1990 के दशक में प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी के एक विद्वान् ने बताया की वे 'एफ्रो-दलित प्रोजेक्ट ' के सिलसिले में भारत से लौटे हैं . और जानकारी लेने से पता चला, अमेरिका के पैसे से चलने वाला यह प्रोजेक्ट भारत के दलितों को 'भारत के black ' और गैर दलितों को 'भारत के  white ' की तरह दिखने का प्रयास है. अमेरिका के काले-गोरे के नस्लवाद और दास प्रथा के इतिहास को उठाकर भारत पर थोपने और इस बहाने से यहाँ सामाजिक वैमनस्य पैदा करने का प्रयास है.
मैंने खोज की कि भारत में द्रविड़ और आर्य जातियों की अवधारणा कहाँ से आई? आर्य  और द्रविड़  जातियों की पहचान भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद की उपज है , 19 वीं शताब्दी के पहले इसका कोई आस्तित्व नहीं था . इसका आधार है यूरोपियनों द्वारा दी गई यह थ्योरी कि भारत पर विदेशी आर्यों ने आक्रमण किया और आत्याचार किये.
 मैंने अमेरिका द्वारा चर्चों को मिलने वाले पैसे और उसके होने वाले उपयोग पर भी शोध किया. अक्सर विदेशों में भारत के गरीब अनाथ बच्चों के लिए सहायता के लिए विज्ञापन आते हैं, और 25-30 वर्ष की उम्र में मैंने दक्षिण भारत में ऐसे ही एक बच्चे का खर्च भी उठाया था. बाद में भारत की अनेक यात्राओं में मैंने पाया की इन पैसों का इस्तेमाल बच्चों की देखभाल के लिए नहीं , बल्कि धर्म परिवर्तन और विचारधारा फ़ैलाने के लिए किया जाता है .
मैं अमेरिका में अनेक विद्वानों और मानवाधिकार संगठनो से वाद विवाद में शामिल हुआ, और पाया की उनका भारत के बारे में एक अजीब रवैया है  -कि भारत एक तरह की गन्दगी है और पश्चिम का काम है भारत को सभ्य बनाना . भारत उनके लिए  CASTE  COWS and CURRY का देश है . उनका काम है भारत कि सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को मानवाधिकार की सनसनीखेज कहानियां  बनाकर प्रस्तुत करना. मैंने भारत के बारे में ऐसी सिद्धांतों का प्रचार करने वाले मुख्य संगठनो और व्यक्तियों पर नजर रखना शुरू किया , साथ ही अमेरिका के कानूनों का उपयोग करते हुए वहां से ऐसे संगठनो को दिए जाने वाले पैसों पर भी नजर रखी. उनकी सभी सभाओं , वर्कशौप  और प्रकाशनों का अध्ययन किया .  मुझे जो मालूम हुआ , वह भारत की एकता और सुरक्षा के बारे में विचार करने वाले हर भारतीय के लिए एक खतरे की घंटी है .

भारत पर यह आक्रमण पश्चिम में एक विशाल उद्योग हैं . विभिन्न संगठनो, व्यक्तियों और चर्चों का एक संगठित तंत्र है जो भारत में एक अलगाववादी ऐतहासिक और धार्मिक पहचान की रचना करने में बड़े जतन से लगा है . बाहर से देखकर ये सरे भारत विरोधी लोग और संगठन अलग अलग नजर आते हैं लेकिन वास्तव में इनके बीच बहुत मजबूत coordination है , और यूरोप और अमेरिका से इन्हें पूरी आर्थिक मदद मिलती. गरीबों की आवाज उठाने के नाम पर ये भारत को तोड़ने के उद्देश्य में लगे हैं . इनका संगठन और इनकी रणनिति बहुत प्रभावशाली हैं और सबसे बड़ा खतरा यह है की ज्यादातर भारतीय इस षड्यंत्र से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं . यही कारण है की जब यह अलगाववादी विचारधाराएँ हथियारबंद हो जाती हैं, तब हम उनपर नियंत्रण करने में अरबों रूपया खर्च करते हैं, पर अभी जब वे अपना जाल फ़ैलाने का काम कर रही हैं, तो उनपर नजर रखने और नियंत्रित करने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं. 

आखिर विश्वविद्यालयों और शिक्षाविदों के बीच होने वाली सामान्य सी दिखने वाली गतिविधियाँ नस्लीय हिंसा कैसे फैला सकती हैं? पर ऐसा हुआ है....श्रीलंका में ऐसी ही कृत्रिम नस्लीय भेद-भाव पूर्ण पहचान बनाई गयी, जिसका परिणाम हुआ वहां दुनिया का सबसे खुनी गृहयुद्ध...जिसने पश्चिम के हथियारों के व्यापार को वर्षों तक जिन्दा रखा. ऐसा अफ्रीका के भी कई भागों में हुआ. और ऐसा भारत में हो रहा है...

ऐसे प्रयासों का एक उदहारण है; जो "GEO " पत्रिका में प्रकाशित इस लेख में स्पष्ट है - "विलुप्त होती भारतीय भाषाएँ". इस लेख में कहा गया है- 

 " ETHNOLOGUE  नामक भाषाओँ का encyclopedia है, जिसमें दुनिया की 7,358 भाषाओँ का उल्लेख है. इसका प्रकाशन "SIL International " नामक एक अमेरिकी क्रिस्चन संस्था करती है. अमेरिका की "Wycliffe Foundation " और इसके बाईबल अनुवादकों की फौज "न्यू इंडिया एवंजेलिकल असोसिएसन" नामक संस्था के साथ मिल कर भारत में बहुत सक्रिय है. बिहार की छः भाषाओँ- भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका, सुरजपुरी और  पंच्परगनिया में बाईबल प्रकाशित होने ही वाली है. "Wycliffe Foundation" का उद्देश्य 2025 तक विश्व की सभी भाषाओँ में बाईबल को पहुँचाना है. जहाँ यह इन भाषाओँ को बचाने का प्रयास है, वहीँ इसमें भी शक नहीं की इसाई धर्म जल्दी ही उन सभी स्थानीय संस्कृतियों पर भी हावी हो जायेगा."

स्पष्ट है कि कैसे भाषा पर होने वाला रिसर्च विदेशी पैसे कि मदद से भारतीय संस्कृति और एकता का शत्रु बन रहा है. इस पुस्तक का मूल उद्देश्य है इन सभी देश-विरोधी शक्तियों के प्रति सभी भारतीयों को सजग करना, जिससे कि हम सभी जाति, भाषा और राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठ कर इस आक्रमण का सामना कर सकें. अन्यथा हमारी अगली पीढ़ी शरणार्थी शिविरों में रहने को बाध्य होगी, जैसा कि कश्मीरी पंडितों, त्रिपुरा के जमातिया, मिजोरम के रियांग और श्रीलंका के तमिल शरणार्थियों के साथ हो रहा है. 

Excerpted with permission from Malhotra, Rajiv and Aravindan Neelakandan, "Breaking India: Western Interventions in Dravidian and Dalit Faultlines," Amaryllis Publishers, Delhi, 2011
Chapter : Introduction 

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Wednesday 25 April 2012

हिटलर की आत्मकथा (मीन केम्प्फ़ )... और आज का भारत.


अक्सर भारत के वामपंथी बुद्धिजीवी और राष्ट्रद्रोही मिडिया देश के राष्ट्रवादी आन्दोलन की तुलना फासिस्ट औरनाजीवादियों से करते हैं . "नाजीवाद " एक ऐसा शब्द है , जिसे बिना किसी बहस के एक  गाली का दर्जा दे दिया गया है. लेकिन जरा उन स्थितियों पर नजर डालिए, जिनके बीच नाजी आन्दोलन पनपा और हिटलर का उदय हुआ. हिटलर की आत्मकथा "मीन केम्फ" के अंग्रेजी अनुवादक जेम्स मर्फी ने अपने अनुवाद की प्रस्तावना में कुछ  ये जानकारियां दी हैं ....अगर आप को इसे पढ़कर आज के भारत की याद आये तो यह गलती मेरी नहीं है.

 हिटलर की आत्मकथा का पहला भाग तब लिखा गया जब वह बावेरिया के किले में बंदी था. वह वहां क्यूँ और कैसे पहुंचा???   

  1923 में फ़्रांस ने जर्मनी पर आक्रमण करके रुर प्रदेश और राइनलैंड के कई जर्मन शहरों पर कब्ज़ा कर लिया.  जर्मन अपना बचाव नहीं कर सके क्यूंकि वार्साई  की संधि के अनुसार जर्मनी का निः शस्त्रीकरण कर दिया गया था. साथ ही फ़्रांस ने राइनलैंड को जर्मनी से अलग एक स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए प्रचार अभियान चलाया.  आन्दोलनकारियों को यह आन्दोलन चलाने और जर्मनी को तोड़ने के लिए बेहिसाब पैसे दिए गए. साथ ही बावेरिया में भी फ़्रांस के उपनिवेश के रूप में अलग कैथोलिक राज्य बनाने के लिए आन्दोलन चलाया गया. ये आन्दोलन अगर सफल हो जाते तो जर्मनी से अलग हुए ये भाग कैथोलिक ऑस्ट्रिया से मिल जाते और एक कैथोलिक ब्लाक तैयार हो जाता जो फ़्रांस के सैन्य और राजनैयिक प्रभाव में रहता और वस्तुत: जर्मनी छोटे- छोटे टुकड़ों में बँट जाता.
  
1923 में बावेरिया का अलगाववादी आन्दोलन सफलता के कगार पर था. बावेरियन जनरल वॉन लासोव, बर्लिन से आदेश नहीं लेते थे. जर्मन राष्ट्रीय ध्वज कहीं दिखाई नहीं देता था. यहाँ तक की बवेरियन प्रधानमंत्री ने बवेरिया की स्वतंत्रता की घोषणा करने का निर्णय ले लिया. तभी हिटलर ने वापस प्रहार किया.
काफी समय से हिटलर म्यूनिख के आस पास के इलाके में समर्थन जुटा रहा था और एक राष्ट्रीय प्रदर्शन करने की तैयारी कर रहा था. उसे प्रथम विश्वयुद्ध के जर्मन कमांडर लुदेनदोर्फ़  का समर्थन प्राप्त था और आशा थी की जर्मन सेनाएं अलगाववादियों के विरुद्ध उसका साथ देंगी. 8 नवम्बर की रात को बवेरियन अलगाववादियों की एक सभा बुलाई गई , जिसमें बवेरियन प्रधानमंत्री डॉ. वॉन कार्र बवेरिया की स्वतंत्रता की घोषणा पढ़ने वाले थे. जैसे ही प्रधानमंत्री ने अपना भाषण पढ़ना आरंभ किया हिटलर और जनरल लुदेन्दोर्फ ने हॉल में प्रवेश किया और सभा भंग कर दी गई.

 अगले दिन नाजी समर्थकों ने राष्ट्रिय एकता के पक्ष में सड़कों पर एक विशाल प्रदर्शन किया. हिटलर और लुदेनदोर्फ़ ने इसका नेतृत्व किया. जैसे ही प्रदर्शन शहर के मुख्य चौक पर पहुंचा, सेना ने गोलियां चला दी. 16  प्रदर्शनकारी मारे गए, 2 लोगों ने बाद में सैनिक बैरकों में दम तोड़ दिया.
हिटलर स्वयं घायल हो गया. जनरल लुदेनदोर्फ़ गोलियों  के बीच चलते हुए सीधे सैनिकों तक पहुंचे, और किसी भी सैनिक को अपने पूर्व कमांडर पर गोली चलने का साहस  नहीं हुआ. हिटलर और उसके कई साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया और लंद्स्बेर्ग के किले में बंदी बनाया गया . 20  फरवरी 1924  को हिटलर पर "राष्ट्रद्रोह " का मुकदमा चलाया गया, और पांच साल के कैद की सजा सुनाई गई.
हिटलर को कुल 13  महीने तक कैद में रखा गया. यहीं जेल में हिटलर की "मीन केम्फ" लिखी गई. हिटलर ने अपनी यह आत्मकथा उन सोलह प्रदर्शनकारी शहीदों को श्रद्धांजलि में समर्पित की है, जिन्होंने अपने देश की एकता के लिए संघर्ष करते हुए अपने ही देश के सैनिकों की गोलियों का सामना किया.  

आज जब हमारे देश में आतंकवादियों को मेहमान बना कर रखा जा रहा है, अलगाववादियों को सर पर बिठाया जा रहा है, देशद्रोहियों को पद्म पुरस्कार  दिए जा रहे हैं और देशभक्तों को आतंकी बता कर जेलों में डाला जा रहा है...तब देश के सामने यह प्रश्न खड़ा है कि हमारे राजनीतिक विकल्प क्या हैं? 

काश्मीर...यहाँ ऐसे फहराया जाता है तिरंगा.
  लाल चौक...जहाँ आप तिरंगा नहीं फहरा सकते!

Saturday 7 April 2012

सेक्यूलर मंगोल राज्य का इतिहास .... और भारत का भविष्य!


मूर्तिभंजक इस्लामिक समाज का एक बहुत बड़ा विरोधाभास है - ईरान में तेरहवीं शताब्दी के एक यहूदी विद्वान् राशिद-उद-दिन की एक विशालकाय मूर्ति . राशिद-उद -दिन ने मंगोल सभ्यता का इतिहास लिखा, और उनका अपना जीवन काल समकालीन इतिहास की एक कहानी बताता है जो भारत के लिए एक बहुत जरुरी सबक है .

मंगोलों ने चंगेज़ खान के समय पूरे एशिया से लेकर यूरोप तक अपना दबदबा बनाया, और मध्य पूर्व एशिया में अपना शासन कायम किया. मंगोल मुख्यतः तांत्रिक धर्म (मंत्रायण) का पालन करते थे जो मूलतः भारत से निकल कर तिब्बत, चीन, जापान और पूरे मध्य एशिया में फैला था. मगोलों ने विश्व का पहला सच्चा धर्म निरपेक्ष राज्य बनाया (भारत के Pseudo Secular राजनीतिक तंत्र जैसा नहीं), जहाँ सभी धर्मों के लोगों को न सिर्फ अपना धर्म मानने की आज़ादी थी, बल्कि सबके बीच स्वस्थ संवाद स्थापित करने का प्रयत्न किया गया. मंगोलों की इस धार्मिक उदारता का सनातन धर्मियों, मंगोल-तुर्क के अदि सभ्यता के लोगों और यहूदियों ने स्वागत किया. इसाई इसके बारे में मिला जुला भाव रखते थे, जबकि मध्य-पूर्व के मुस्लिम इनसे बहुत घृणा करते थे. 

इस दौरान चंगेज़ खान के वंशज (परपोते) आरगुन खान ने एक यहूदी डॉक्टर शाद-उद-दौला को अपना वजीर बनाया. शाद-उद-दौला बहुत कुशल और प्रतिभावान था. उसके समय में आरगुन खान ने बगदाद और तिबरिज़ में कई मंदिर बनवाए और मक्का पर कब्ज़ा करने की योजना बनायीं. उसी समय आरगुन खान बुरी तरह बीमार पड़ा, और मौका देख कर मुस्लिमों ने शाद-उद-दौला की हत्या कर दी. शाद-उद-दौला ने अपने समय में अन्य कई यहूदियों को प्रशासन में स्थान दिया था, उन्ही में से एक थे राशिद-उद-दीन, जो बाद में आरगुन खान के उत्तराधिकारी महमूद गजान के वजीर बने. 

आरगुन की मृत्यु के बाद मुस्लिम और मंगोलों के बीच लगातार संघर्ष चला, और मुस्लिमों ने मंगोल अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के लिए बाज़ार को नकली नोटों और सिक्कों से भर दिया - यह तरकीब जो आज भी भारत के विरुद्ध प्रयोग की जा रही है.  
गजान खान के समय राशिद-उद-दीन ने स्थिति को अंततः नियंत्रण में लिया, अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाया, टैक्स-सुधार किये, और समृद्धि वापस लौटी. लेकिन मुस्लिमों से संघर्ष चलता रहा और और मुसलमान लगातार गजान खान पर इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाये रहे. अन्तः में स्थिति को शांत करने के लिए गजान खान और राशिद-उद-दीन ने  ऊपरी तौर पर इस्लाम स्वीकार कर लिया, और गजान को अमीर-उल-मोमिन घोषित किया गया. अब मुसलमान गजान खान पर दबाव बनाने लगे की वह मंदिरों, चर्चों, और सिनागोग (यहूदि धर्म स्थल) को तोड़े और दूसरे लोगों को भी इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य करे. 
राशिद-उद-दीन के वजीर रहते गजान खान, और उसके भाई ओल्जितु का शासन लगभग शांति और स्थिरता से गुजर गया. राशिद स्वयं को अरस्तु और गजान को अपना Alexander कहता था. राशिद ने दुनिया के कोने कोने से धर्म-गुरुओं और विद्वानों को बगदाद के दरबार में जगह दी. हालाँकि इस्लामिक गुट ने राशिद-उद-दीन पर लगातार आरोप लगाया कि उसने अपना मूल यहूदी धर्म अभी भी नहीं छोड़ा था. 

फिर इल्खानेत वंश के तेरहवें राजा ओल्जितु (धर्म परिवर्तन के बाद मोहम्मद खुदाबन्द) की मृत्यु के बाद इस्लामिक गुट का पूरा नियंत्रण हो गया. राशिद-उद-दीन पर ओल्जितु की हत्या का आरोप लगाया गया और छुप कर अन्दर ही अन्दर यहूदी धर्म से सहानुभूति रखने का आरोप लगाया गया. उसे कैद कर लिया गया, उसकी आँखों के सामने उसके बेटे का सर काट दिया गया. फिर राशिद का सर काट कर उसके कटे सर को तिबरिज़ की सडकों पर घुमाया गया. इतने से ही राशिद-उद-दीन के प्रति उनकी घृणा ख़त्म नहीं हुई. पंद्रहवीं शताब्दी में तैमुर-लंग के बेटे मिरान शाह ने राशिद-उद-दीन की कब्र खुदवा कर उसकी सर कटी लाश पास के यहूदी कब्रिस्तान में फिंकवा दी.
यह था सेक्युलरिज्म का अंत और इस्लाम के प्रति नरम रवैया रखने का परिणाम. 

हमारे लिए इस कहानी से यही शिक्षा है की एक धर्म निरपेक्ष राज्य इस्लाम का सामना नहीं कर सकता है. अगर एक सेक्युलर राज्य की सीमाओं के बीच बड़ी मुस्लिम संख्या रहेगी तो धीरे-धीरे ये लोग शासन तंत्र पर हावी हो ही जायेंगे. आज हमारे जो नेता इफ्तार पार्टियों में  हरी पगड़ी और गोल टोपी लगाये घूम रहे हैं, कल उन्हें कलमा पढना होगा और सुन्नत करवानी होगी. फिर उन्हें अपने भाई बंधुओं पर तलवार उठाने को कहा जायेगा, और अंत में उनका और उनके बच्चों का वही हाल होगा जो राशिद-उद-दीन का हुआ.

क्या मुलायम सिंह यादव की आँख के आगे यही मुल्ले एक दिन अखिलेश सिंह का सर नहीं काटेंगे? पर इन हिन्दुओं को यह कौन समझाये.....

Wednesday 4 April 2012

साइप्रस का इतिहास.... और भारत का भविष्य!



साइप्रस नाम के इस छोटे से देश की कहानी को ध्यान से पढ़ें....कुछ जानी पहचानी लगेगी.

साइप्रस एक छोटा सा द्वीप है जो टर्की से 40 मील दक्षिण और ग्रीस से 480 मील दक्षिणपूर्व पर स्थित है । एक समय इस द्वीप पर 720,000 ग्रीक रहते थे ।पर 1571 में टर्की ने इस पर आक्रमण कर दिया और इसके  उत्तरी भाग पर इस्ताम्बुल का कब्ज़ा हो गया। 1878 में ब्रिटिश ने इसे लीज पर लिया। लीज प्रथम विश्व युद्ध के बाद समाप्त हो गया और 1925 में यह द्वीप ब्रिटिश राज की colony बन गई। 1960 में ब्रिटिश ने इसे आज़ाद कर दिया और साइप्रस गणतंत्र बना जहाँ 80 % ग्रीक थे और 20 % तुर्क थे ।

जल्द ही तुर्क मुस्लिम को ग्रीक ईसाई के साथ रहने में परेशानी महसूस होने लगी. अब मुसलमानों के लिए ये कोई नई बात नहीं है. 1878 में ओटोमन तुर्क साम्राज्य का शासन समाप्त होने से साइप्रस 'दार-उल -इस्लाम ' नहीं रह गया बल्कि यह यह साइप्रस के तुर्क मुस्लिमों के लिए 'दार-उल -हब्र' (land of conflict ) बन गया। शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के सामने वे कुछ कर नहीं सकते थे ,पर ब्रिटिश के जाते ही स्थिति बदल गई .

साइप्रस के तुर्क मुस्लिम अब भी कुछ करने की स्थिति में नहीं थे क्यूंकि उनकी संख्या कुल जनसँख्या का 20% थी। इसलिए 1974  में तुर्क मुस्लिम ने टर्की को साइप्रस पर आक्रमण करने को बुलाया। साइप्रस की सरकार इस आक्रमण को रोक नहीं पाई। 1975  में तुर्क मुस्लिमों ने विभाजन की मांग की। अलग हुए भाग ने अपने आप को 1983  में आज़ाद घोषित कर दिया और नाम रखा 'Turkish  Republic  of  northern  cyprus 'और टर्की ने उसे एक नए देश का दर्जा दे दिया । 


गौर करने वाली बात यह है कि पहले 16 वीं सदी तक इस देश में सिर्फ ग्रीक ईसाई रहते थे. 1571  में तुर्क आयें एवं उत्तरी साइप्रस में ग्रीक ईसाई के साथ रहने लगे। सबसे दुखद बात यह है कि 1974  में जुलाई अगस्त की घुसपैठ में तुर्की आक्रमणकारियों ने बर्बरता पूर्वक ग्रीक ईसाईयों को वहां से भगा दिया । 200 ,000  ग्रीक ईसाई को बलपूर्वक निकाल दिया ।वे लोग अपना घर बार छोड़कर दक्षिण भाग में आ गए जहाँ ग्रीक ईसाई रहते थे ।वे लोग अपने  ही घर में शरणार्थी बन गए और ये सब किया गया ठीक विभाजन कि मांग से पहले और उसके बाद 1983  में साइप्रस का एकतरफ़ा विभाजन हो गया । Ethnic cleansing के बाद भी उत्तरी भाग में 12 ,000  ग्रीक रह गए। 20  वर्षों के बाद वहां सिर्फ 715  ग्रीक रह गए और अब शून्य । कहाँ गए ये लोग ???

 मैंने यह सब क्यूँ लिखा?  क्यूंकि कश्मीर,पाकिस्तान और बंगलादेश में यही हुआ और आज भी हो रहा है । बंगाल, असम, केरल में यही सब हो रहा है। क्या हमलोग साइप्रस देश या कश्मीर से कुछ सीखेगे ???? क्या अभी भी हमें यह दुविधा होनी चाहिए कि इस्लाम क्या करता है और आगे क्या करेगा ????