Wednesday 25 April 2012

हिटलर की आत्मकथा (मीन केम्प्फ़ )... और आज का भारत.


अक्सर भारत के वामपंथी बुद्धिजीवी और राष्ट्रद्रोही मिडिया देश के राष्ट्रवादी आन्दोलन की तुलना फासिस्ट औरनाजीवादियों से करते हैं . "नाजीवाद " एक ऐसा शब्द है , जिसे बिना किसी बहस के एक  गाली का दर्जा दे दिया गया है. लेकिन जरा उन स्थितियों पर नजर डालिए, जिनके बीच नाजी आन्दोलन पनपा और हिटलर का उदय हुआ. हिटलर की आत्मकथा "मीन केम्फ" के अंग्रेजी अनुवादक जेम्स मर्फी ने अपने अनुवाद की प्रस्तावना में कुछ  ये जानकारियां दी हैं ....अगर आप को इसे पढ़कर आज के भारत की याद आये तो यह गलती मेरी नहीं है.

 हिटलर की आत्मकथा का पहला भाग तब लिखा गया जब वह बावेरिया के किले में बंदी था. वह वहां क्यूँ और कैसे पहुंचा???   

  1923 में फ़्रांस ने जर्मनी पर आक्रमण करके रुर प्रदेश और राइनलैंड के कई जर्मन शहरों पर कब्ज़ा कर लिया.  जर्मन अपना बचाव नहीं कर सके क्यूंकि वार्साई  की संधि के अनुसार जर्मनी का निः शस्त्रीकरण कर दिया गया था. साथ ही फ़्रांस ने राइनलैंड को जर्मनी से अलग एक स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए प्रचार अभियान चलाया.  आन्दोलनकारियों को यह आन्दोलन चलाने और जर्मनी को तोड़ने के लिए बेहिसाब पैसे दिए गए. साथ ही बावेरिया में भी फ़्रांस के उपनिवेश के रूप में अलग कैथोलिक राज्य बनाने के लिए आन्दोलन चलाया गया. ये आन्दोलन अगर सफल हो जाते तो जर्मनी से अलग हुए ये भाग कैथोलिक ऑस्ट्रिया से मिल जाते और एक कैथोलिक ब्लाक तैयार हो जाता जो फ़्रांस के सैन्य और राजनैयिक प्रभाव में रहता और वस्तुत: जर्मनी छोटे- छोटे टुकड़ों में बँट जाता.
  
1923 में बावेरिया का अलगाववादी आन्दोलन सफलता के कगार पर था. बावेरियन जनरल वॉन लासोव, बर्लिन से आदेश नहीं लेते थे. जर्मन राष्ट्रीय ध्वज कहीं दिखाई नहीं देता था. यहाँ तक की बवेरियन प्रधानमंत्री ने बवेरिया की स्वतंत्रता की घोषणा करने का निर्णय ले लिया. तभी हिटलर ने वापस प्रहार किया.
काफी समय से हिटलर म्यूनिख के आस पास के इलाके में समर्थन जुटा रहा था और एक राष्ट्रीय प्रदर्शन करने की तैयारी कर रहा था. उसे प्रथम विश्वयुद्ध के जर्मन कमांडर लुदेनदोर्फ़  का समर्थन प्राप्त था और आशा थी की जर्मन सेनाएं अलगाववादियों के विरुद्ध उसका साथ देंगी. 8 नवम्बर की रात को बवेरियन अलगाववादियों की एक सभा बुलाई गई , जिसमें बवेरियन प्रधानमंत्री डॉ. वॉन कार्र बवेरिया की स्वतंत्रता की घोषणा पढ़ने वाले थे. जैसे ही प्रधानमंत्री ने अपना भाषण पढ़ना आरंभ किया हिटलर और जनरल लुदेन्दोर्फ ने हॉल में प्रवेश किया और सभा भंग कर दी गई.

 अगले दिन नाजी समर्थकों ने राष्ट्रिय एकता के पक्ष में सड़कों पर एक विशाल प्रदर्शन किया. हिटलर और लुदेनदोर्फ़ ने इसका नेतृत्व किया. जैसे ही प्रदर्शन शहर के मुख्य चौक पर पहुंचा, सेना ने गोलियां चला दी. 16  प्रदर्शनकारी मारे गए, 2 लोगों ने बाद में सैनिक बैरकों में दम तोड़ दिया.
हिटलर स्वयं घायल हो गया. जनरल लुदेनदोर्फ़ गोलियों  के बीच चलते हुए सीधे सैनिकों तक पहुंचे, और किसी भी सैनिक को अपने पूर्व कमांडर पर गोली चलने का साहस  नहीं हुआ. हिटलर और उसके कई साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया और लंद्स्बेर्ग के किले में बंदी बनाया गया . 20  फरवरी 1924  को हिटलर पर "राष्ट्रद्रोह " का मुकदमा चलाया गया, और पांच साल के कैद की सजा सुनाई गई.
हिटलर को कुल 13  महीने तक कैद में रखा गया. यहीं जेल में हिटलर की "मीन केम्फ" लिखी गई. हिटलर ने अपनी यह आत्मकथा उन सोलह प्रदर्शनकारी शहीदों को श्रद्धांजलि में समर्पित की है, जिन्होंने अपने देश की एकता के लिए संघर्ष करते हुए अपने ही देश के सैनिकों की गोलियों का सामना किया.  

आज जब हमारे देश में आतंकवादियों को मेहमान बना कर रखा जा रहा है, अलगाववादियों को सर पर बिठाया जा रहा है, देशद्रोहियों को पद्म पुरस्कार  दिए जा रहे हैं और देशभक्तों को आतंकी बता कर जेलों में डाला जा रहा है...तब देश के सामने यह प्रश्न खड़ा है कि हमारे राजनीतिक विकल्प क्या हैं? 

काश्मीर...यहाँ ऐसे फहराया जाता है तिरंगा.
  लाल चौक...जहाँ आप तिरंगा नहीं फहरा सकते!

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